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रविवार, 19 दिसंबर 2010

गिध्द

मेरी माँ कह्ती थी
मेरा बाप बड़ा ज़ालिम था
वो शायद सच कह्ती थी
हमेशा गुर्राना
बात-बात पर डांट्ना
हां ये तो मुझे याद हॅ
वो अपने दोस्तों के साथ
बॅठ्क में बॅठा चिलम पीता
लच्छेदार बाते करता
ज़ोरदार कह्कहे लगाता
चाय के लिये कड़क आवाज़ लगाता...
कभी-कभी वो शिकार पर जाता
माँ के जिस्म का गोश्त नोच कर दावत उड़ाता
असहाय सी माँ आंसू बहाती
और मॅ उसका वंशज हूं
यही रीत फिर से दोहरांऊंगा
शायद यही हॅ नियति..


5 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

ओह! बेहद मार्मिक और सत्य चित्रण्।

वीना श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत ही मार्मिक कविता...पर हर वंशज वही करे जो होता आया है यह जरूरी तो नही...

Urmi ने कहा…

आपको एवं आपके परिवार को क्रिसमस की हार्दिक शुभकामनायें !

Creative Manch ने कहा…

बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति
रचना के भीतर की जो संवेदना और गहराई है वो बहुत सुन्दर है
बधाई
आभार

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा…

बेहद मार्मिक ... बहुत ही खूबसूरत भावमयी..