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शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

वक्त का देखा मैंने................

मैंने देखा शीशे को



शीशे ने देखा मुझे



समझ ना आया



बचपन की यादें



जवानी की बातें



बुढापे की झुर्रियाँ



सच, वक्त को देखा मैंने शीशे में

अव्वल से आखीर तक....................

फिर दूर
बहुत दूर
जहाँ पुकार सके न कोई
शून्य में डूब चुके
सवालों को उभार सके न कोई
और हाँ, धरती के किसी छोर तक
मैं तो क्या,
सूरज भी हार जाता भोर तक
क्या मिलेगा उसे
क्या मिला है मुझे
कुछ किताबों का बोझ उठाए
अव्वल से आखीर तक
सबको उलझाए
एक बार फिर
अपने अस्तित्व को ही
भूल जाएँ
माँ की गोद में
बचपन को बुला लाएँ
---(दूर कहीं सन्नाटा है से)