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रविवार, 19 दिसंबर 2010

गिध्द

मेरी माँ कह्ती थी
मेरा बाप बड़ा ज़ालिम था
वो शायद सच कह्ती थी
हमेशा गुर्राना
बात-बात पर डांट्ना
हां ये तो मुझे याद हॅ
वो अपने दोस्तों के साथ
बॅठ्क में बॅठा चिलम पीता
लच्छेदार बाते करता
ज़ोरदार कह्कहे लगाता
चाय के लिये कड़क आवाज़ लगाता...
कभी-कभी वो शिकार पर जाता
माँ के जिस्म का गोश्त नोच कर दावत उड़ाता
असहाय सी माँ आंसू बहाती
और मॅ उसका वंशज हूं
यही रीत फिर से दोहरांऊंगा
शायद यही हॅ नियति..


शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

फिर सोच रहा हूँ सतह पर
फिर देख रहा हूँ क्षितिज पर
फिर सुन रहा हूँ प्रक्रति को
फिर शब्द आकार ले रहे है
शोचा तो अतीत
देखा तो प्रीत
सुना तो गीत
बोला तो मीत

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

गज़ल

आँख मॅ स्वपन कब था किसी रात का
दर्द दिल मॅ था शायद तेरी घात का
तूने मुड़ कर मेरी सिम्त देखा नही
मुझे अफ़सोस कब हॅ तेरी बात का
कितने मन्ज़र बहारों के थे हर तरफ़
याद आता हॅ वो दिन तेरे साथ का
क्युं मॅ समझू ये चाल किस की रही
मुझ को अफ़सोस कब हॅ किसी मात का

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

अस्तित्व


इन ज़ड़ो मे खोजो मुझे
इन घड़ो मे खोजो मुझे
इन दरो-दीवारो मे
रास्ते के शह्सवारो मे
खोजो मुझे
ज़मीनो-ओ-आसमानो मे
अनकही दास्तानो मे
खोजो मुझे
क्या कभी मै था
या तुम थे
जैसे दरीया का पानी

मंगलवार, 2 मार्च 2010

रोबोट

पहले आदमी -आदमी था
वो हँसता था रोता था किसी के लिऐ
उस में संवेदना थी
दूसरे के लिऐ वेदना थी
आज आदमी- आदमी नहीं
वो हँसता नहीं
रोता नहीं किसी के लिऐ
वो संवेदनहीन है
पत्थर का स्टैचू है
कंप्युटर से दिमाग चलता है
स्वार्थ के लिऐ आंकङे फिट रखता है
आज आदमी- आदमी नहीं
शायद.... रोबोट है

सोमवार, 1 मार्च 2010

माँ

खिले फिर गुलाब
सावन भी बरसा
बीते दिन गए कहाँ
मन रह रह तरसा
फिर आई बहारे
भँवरे भी डोले
रूठे थे जो कल
ना आए फिर वो पल
सब कुछ है घर में
कँप्युटर पोर्च मे कार भी
माँ की दुआऐँ गयी कहाँ
जैसे नजरे थक गयी वहाँ