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गुरुवार, 9 अक्टूबर 2008

जिज्ञासा

मन फिर वही बात सोचता है ऐसा क्य़ो वैसा क्यों
दिन डूबा रात भी आई मगर मन की जिज्ञासा ज्यों की त्यों पाई
फूलो की कोमलता अनुभव की, काँटो की चुभन भी सही
मगर पत्थर को पत्थर, शीशे की बात समझ ना आई
मन...................................... फिर वही बात सोचता है ..

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