आँख मॅ स्वपन कब था किसी रात का
दर्द दिल मॅ था शायद तेरी घात का
तूने मुड़ कर मेरी सिम्त देखा नही
मुझे अफ़सोस कब हॅ तेरी बात का
कितने मन्ज़र बहारों के थे हर तरफ़
याद आता हॅ वो दिन तेरे साथ का
क्युं मॅ समझू ये चाल किस की रही
मुझ को अफ़सोस कब हॅ किसी मात का
3 टिप्पणियां:
गज़ल अच्छी है ..पर अंतिम पंक्ति में कुछ गडबड लग रही है ...
आपने अंतिम पंक्ति में सुधार किया ..अच्छा लगा ...मेरे ब्लॉग पर आने का शुक्रिया
बहुत सुन्दर ..सुन्दर गज़ल..
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