मेरी माँ कह्ती थी
मेरा बाप बड़ा ज़ालिम था
वो शायद सच कह्ती थी
हमेशा गुर्राना
बात-बात पर डांट्ना
हां ये तो मुझे याद हॅ
वो अपने दोस्तों के साथ
बॅठ्क में बॅठा चिलम पीता
लच्छेदार बाते करता
ज़ोरदार कह्कहे लगाता
चाय के लिये कड़क आवाज़ लगाता...
कभी-कभी वो शिकार पर जाता
माँ के जिस्म का गोश्त नोच कर दावत उड़ाता
असहाय सी माँ आंसू बहाती
और मॅ उसका वंशज हूं
यही रीत फिर से दोहरांऊंगा
शायद यही हॅ नियति..
5 टिप्पणियां:
ओह! बेहद मार्मिक और सत्य चित्रण्।
बहुत ही मार्मिक कविता...पर हर वंशज वही करे जो होता आया है यह जरूरी तो नही...
आपको एवं आपके परिवार को क्रिसमस की हार्दिक शुभकामनायें !
बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति
रचना के भीतर की जो संवेदना और गहराई है वो बहुत सुन्दर है
बधाई
आभार
बेहद मार्मिक ... बहुत ही खूबसूरत भावमयी..
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