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शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

अव्वल से आखीर तक....................

फिर दूर
बहुत दूर
जहाँ पुकार सके न कोई
शून्य में डूब चुके
सवालों को उभार सके न कोई
और हाँ, धरती के किसी छोर तक
मैं तो क्या,
सूरज भी हार जाता भोर तक
क्या मिलेगा उसे
क्या मिला है मुझे
कुछ किताबों का बोझ उठाए
अव्वल से आखीर तक
सबको उलझाए
एक बार फिर
अपने अस्तित्व को ही
भूल जाएँ
माँ की गोद में
बचपन को बुला लाएँ
---(दूर कहीं सन्नाटा है से)

1 टिप्पणी:

vandana gupta ने कहा…

dharti ke ek chor se doosre chor tak jahan sooraj bhi har jata hai .............wahan sirf kavi ki kalpna aur zindagi ki sachchai hi pahun pati hai..........bahut hi sundar rachna hai